झील के साये मे भीगा तन तुम्हारा,
याद है आज भी साझं का वो नज़ारा!
वासना के समन्दर मे मन गोते ले,
और तन गर्म श्वासों मे डूबा बेचारा!!झील के साये मे ....
रात पूरी यूं ही आँखों मे ही कट गई,
पता नही सूरज कब निकला दोबारा!!झील के साये मे .....
दिन गुज़र गया उनीदी कल्पनाओं मे,
सांझ होते ढूँढ्ने लगा झील का किनारा!!झील के साये मे ....
तुम ना आये फ़िर कभी उस झील पर,
हाँ मैं रोज़ आता हूँ कि हो दर्शन दुबारा!!झील के साये मे ...
बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७
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