सांझ को सजने वाली मह्फ़िलें अब कहाँ ?
अपनी धुन मे मद मस्त काफ़िले अब कहाँ ?
हर कोई अपने शगल मे गाफ़िल दीखता है ,
हुनर को भी कोई किसी से नही सीखता है !
है यह नई उम्र और नई फ़सल का फ़ल्सफ़ा,
अपने ही मोबाइल से गाने सुनना तब कहाँ? सांझ को सजने ...
खेल के मैदान मे इक्का-दुक्का ही दीखता है,
बिना ट्यूशन अब कहाँ कोई कुछ सीखता है !
कोचिंग और मय्खानो पर ही भीड दिखती है,
लाइब्रेरी मे बैठ खुद पढने का ट्रेंड अब कहाँ?सांझ को सजने....
बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें