सोमवार, 3 दिसंबर 2012

अब कहाँ ?


सांझ को सजने वाली मह्फ़िलें अब कहाँ ?
अपनी धुन मे मद मस्त काफ़िले अब कहाँ ?
हर कोई अपने शगल मे गाफ़िल दीखता है ,
हुनर को भी कोई किसी से नही सीखता है !
है यह नई उम्र और नई फ़सल का फ़ल्सफ़ा,
अपने ही मोबाइल से गाने सुनना तब कहाँ? सांझ को सजने ...
खेल के मैदान मे इक्का-दुक्का ही दीखता है,
बिना ट्यूशन अब कहाँ कोई कुछ सीखता है !
कोचिंग और मय्खानो पर ही भीड दिखती है,
लाइब्रेरी मे बैठ खुद पढने का ट्रेंड अब कहाँ?सांझ को सजने....

बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७

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