शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012
गुनह्गार,
मेरे बागों की मैना ,बिल्कुल मौन है !
उसका दर्द समझते सब, मेरा कौन है?
चाहती है उडना वो, खुले आकाश मे ,
क्यूं बँधी रहे वो मेरे, प्रेम-पाश मे !
मैने उसे घर दिया था इस आस से,
वो रहे सुरछित,बहेलियों के त्रास से !
मैने दिया उसे निश्चल-निष्काम प्रेम,
तोड दिया उसने ,मेरे अन्तस का फ़्रेम!
है मेरी अभिलाषा वैसे ही गुन्गुनाये,
सदा उन्मुक्त आकाश मे वो चहचाये !
जो चाहे सज़ा दे ,मैं उसका गुनह्गार,
वो सत्य समझे नही,है वो मेरा प्यार!
बोधिसत्व कस्तूरिया २०२ नीरव निकुन्ज सिकन्दरा आगरा २८२००७
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